"आखिरी खत – एक माँ की खामोश विदाई"

" माँ… मैं बहुत बिजी हूँ, बाद में बात करती हूँ..." फोन पर ये कहते हुए अन्वी ने माँ की कॉल काट दी। वो अब एक बड़ी कंपनी में मैनेजर थी, शहर की रफ्तार में ऐसी उलझी थी कि गाँव की मिट्टी, माँ की रोटी और पायल की छनक सब धुंधली सी लगने लगी थी। माँ – शारदा देवी – हर दिन उसी दोपहर के फोन का इंतज़ार करतीं। आज भी उन्होंने दोपहर 2 बजे कुर्सी खींची, फोन हाथ में लिया, और स्क्रीन पर घंटों नजरें टिकाए बैठी रहीं। लेकिन फोन नहीं आया 🧣 "मैं माँ हूँ… लेकिन अब ज़रूरत नहीं रही" शारदा अकेली रहती थीं। पति वर्षों पहले चल बसे थे। अन्वी बचपन में बहुत प्यार करती थी – मम्मी की गोद में सोती थी, उनके हाथ की चाय पीती थी, और कभी-कभी कहती: "माँ, तुम कभी मुझसे दूर मत जाना। लेकिन वक़्त की हवा तेज होती है। बड़ी होते ही वही बेटी किसी और दुनिया में खो गई। 📦 "माँ को कुछ नहीं चाहिए" – बेटी की सोच अन्वी महीने में एक बार पैसा भेज देती थी। फोन पर कभी-कभार पूछ लेती – “कुछ चाहिए मम्मी?” शारदा मुस्कुरातीं – “नहीं बेटा, बस तेरी आवाज़ सुन ली, वही बहुत है।” पर हकीकत ये थी कि उनकी आंखें कमज़ोर हो रह...